Thursday, November 27, 2014

चार साहिबजादे

चार साहिबजादों की बहादुरी को देख कर छलके हजारों आंखों में आंसू
रंजीत लुधियानवी
कोलकाता, 16 नवंबर। एक साथ दो हजार से ज्यादा आंखों में आंसू छलकते रहे और यह एक बार नहीं तकरीबन दो घंटे  के दौरान बार-बार हुआ, आंसू बहाने वाली आंखों में पुरुष, महिला, बच्चे, जवान सभी शामिल थे। यह मौका रविवार की सुबह डनलप के सोनाली सिनेमा हाल में देखा गया जहां सुबह नौ बजे वाले शो में 1200 सीटों वाले प्रेक्षागृह में छह महीने से लेकर सात साल के बच्चों को मिलाकर फिल्म देखने वाले दर्शकों की संख्या ज्यादा नहीं तो कम से कम 1500 तो जरुर रही होगी। गुरुद्वारा सिख संगत, डनलप ब्रिज और नौजवान सभा की ओर से निर्माता पम्मी बवेजा, निर्देशक हैरी बवेजा की सिखों के दसवें गुरू गुरू गोविंद सिंह जी के चार साहिबजादों (पुत्रों) पर आधुनिक थ्री डी तकनीक से बनाई गई 129 मिनट की फिल्म ‘चार साहिबजादे’ के मुफ्त प्रदर्शन का था।
पश्चिम बंगाल में पहली बार पंजाबी भाषा की कोई फिल्म इतने व्यापक स्तर पर प्रदर्शित की गई है। आइनाक्स, अवनि पीवीआर, सोनाली, मेनका समेत राज्य के विभिन्न मल्टीप्लेक्स और साधारण सिनेमा घरों में हिंदी, पंजाबी भाषा के थ्री डी और टू डी के लगभग 20 शो प्रतिदिन हो रहे हैं। मालूम हो कि तकरीबन 26 करोड़ की लागत से बनी फिल्म पहले ही देश-विदेश में सुपरहिट हो चुकी है। पहले चार दिनों में 7.90 करोड़ के कारोबार के साथ पहले नौ दिनों में फिल्म 20 करोड़ रुपए का कारोबार कर चुकी है। इतना ही नहीं विदेशों में भी फिल्म ने शानदार कारोबार करते हुए शाहरुख खान की हैप्पी न्यू ईयर को कड़ी टक्कर दी है। तीसरे हफ्ते बंगाल के ब्रांड अंबेसडर की फिल्म ने जहां 178 प्रिंटों पर 2.20 करोड़ रुपए की कमाई की वहीं सिख इतिहास पर अंग्रेजी, हिंदी और पंजाबी तीन भाषाओं में  बनी फिल्म ने पहले हफ्ते उसके मुकाबले 60 प्रिंटों पर 2.27 करोड़ रुपए की कमाई करके रिकार्ड बनाते हुए इंगलैंड, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में पहला स्थान हासिल किया।
‘चार साहिबजादे’ देखकर भाव विभोर हुए दर्शकों का मानना है कि निर्देशक ने बहुत ही साहस और चतुराई के साथ संवेदनशील विषय पर बहुत ही सफलता से फिल्म का निर्माण किया है। मालूम हो कि इससे पहले दारा सिंह की  ‘सवा लाख से एक लड़ाऊं’ (1976) से लेकर मंगल ढिल्लों की  ‘खालसा’ (1999) तक कई फिल्मकारों ने सिख धर्म पर फिल्म बनाने का साहस किया है लेकिन उन्हें भारी मुसीबतों और विरोध का सामना करना पड़ा। खालसा पंथ के  300 साला स्थापना दिवस के मौके पर आनंदपुर साहिब में अपनी फिल्म का प्रदर्शन करने पहुंचे ढिल्लो ने बताया था कि वे तो सिख होने के नाते धर्म का प्रचार करना चाहते हैं लेकिन उन्हें फिल्म प्रदर्शित करने की मंजूरी नहीं दी गई। इस तरह कई लोगों ने प्रयास किए लेकिन विफल हो गए।
फिल्म देखने वालों का कहना है कि हैरी बवेजा ने संवेदनशील विषय पर बेहद चतुराई से फिल्म का निर्माण किया है। खालसा पंथ की स्थापना करने वाले कवि, योद्धा, इतिहासकार , रणनीतिकार से लेकर कुशल श्रृद्धालु गुरू गोविंद सिंह (आपे गुरू-आपे चेला) के चार साहिबजादों के माध्यम से जहां सिखों के साहस, वीरता, चतुराई, नेतृत्व क्षमता  का ओम पुरी की दमदार आवाज में शानदार बखान कियागया है वहीं यह सीख भी दी गई है कि नेता वह होता है जो आगे बढ़कर दुश्मनों का मुकाबला करता है, जरुरत पड़ने पर अपने बेटों को भी शहीद होने के लिए भेजता है। 42 सिखों का 10 लाख मुगल सैनिकों से मुकाबला करने वाली जंग का बखूबी चित्रण करते हुए निर्देशक ने इस बात का भी ख्याल रखा है कि सिख गुरू को नहीं चित्रित किया जा सकता,  इसलिए चित्रों के माध्यम से दसवें गुरू की उपस्थित हर जगह प्रदर्शित की गई है।
कई लोगों के मुताबिक युवा पीढ़ी स्पाइडरमैन, सुपर मैन के काल्पनिक चरित्र देखती है उन्हें ‘चार साहिबजादे’ देखनी चाहिए, जिससे असली नायकों से परिचय हो सके और देश के सभी गैर सिखों के यह फिल्म इसलिए देखनी चाहिए कि सिखों के इतिहास के बारे में महज दो घंटों में जानकारी हासिल कर सकें। मालूम हो कि फिल्म के घटनास्थल से लेकर युद्ध में गुरू की ओर से चलाए गए शस्त्र काल्पनिक नहीं बल्कि असली शस्त्रों की तर्ज पर ही बनाए गए हैं।

Monday, September 15, 2014

मनमोहन सिंह के पक्ष में बोल पड़ी बेटी दमन: मेरे पिता तय करेंगे, आत्मकथा लिखें या नहीं


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Monday, 15 September 2014 16:20
नई दिल्ली। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पुत्री दमन सिंह का कहना है कि





नई दिल्ली। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पुत्री दमन सिंह का कहना है कि उनके पिता आत्मकथा लिखना चाहते हैं या नहीं, इस बारे में फैसला वही करेंगे। 

    दमन ने कल शाम अपनी किताब ‘‘स्ट्रिक्टली पर्सनल : मनमोहन एंड गुरशरण’’ के प्रकाशन से जुड़े एक समारोह में कहा ‘‘इस बारे में मेरे पिता को ही तय करना है। मुझे पूरा विश्वास है कि उनका लिखना इस बात पर निर्भर होगा कि उन्हें यह कितना रोमांचक लगता है।’’
    किताब लिखने के इस कठिन कार्य का आरंभ मनमोहन सिंह और उनकी पत्नी गुरशरण कौर के 1930 के दशक के शुरूआती दिनों की झलक से होता है और यह सफर वर्ष 2004 तक चलता है। मनमोहन और गुरशरण अमृतसर, पटियाला, होशियारपुर, चंडीगढ़, ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज, न्यूयॉर्क, जिनीवा, मुंबई तथा नई दिल्ली जैसी जगहों पर रहे और इन जगहों पर उनके प्रवास का जिक्र इस किताब में है।
    इससे पहले दो उपन्यास लिख चुकीं दमन का कहना है कि तीन लेखकों.... विक्रम सेठ, सिल्विया नासर और एम जे अकबर की बायोग्राफीज ने उनमें अपने अभिभावकों के बारे में ‘‘बेहद स्नेह और ईमानदारी’’ से लिखने का जज्बा पैदा हुआ।
    दमन ने कहा ‘‘विक्रम सेठ की ‘टू लाइव्स’ बेहद खूबसूरत रचना है जिसका मुझ पर गहरा असर हुआ। गणितज्ञ जॉन नैश पर लिखी सिल्विया नासर की किताब भी दिलचस्प है। तीसरी किताब नेहरू पर एम जे अकबर द्वारा लिखी बायोग्राफी है। इसका कोई जवाब नहीं है क्योंकि यह एक सार्वजनिक हस्ती के निजी जीवन के पन्ने बेहद करीने से पलटती है।’’
    किताब लेखन का विचार दमन सिंह के मन में करीब पांच

साल पहले से आकार ले रहा था। लेखन प्रक्रिया के बारे में उन्होंने बताया ‘‘मैं सवालों की सूची बनाती, अपने पिता या मां से समय लेती, उनके घर जाती, बातचीत रिकॉर्ड करती और फिर आ कर उसे लिखती।’’
    दमन ने कहा ‘‘यह किताब दो व्यक्तियों के बारे में है। इसमें उनकी सोच, उनकी राय, उनकी आस्थाओं, मूल्यों और आचरण का जिक्र है। इसमें बताया गया है कि कैसे विचार बनते हैं और समय के साथ उनमें कैसे बदलाव आता है।’’
    उन्होंने बताया कि किताब में ‘‘भारत का भी जिक्र है जो विभाजित तो हुआ लेकिन आखिरकार आजाद हो गया। इसमें बताया गया है कि देश ने आगे बढ़ने के लिए साहस के साथ कैसे संघर्ष किया और किस तरह के उतार चढ़ाव भरे दौर से गुजरा।’’
    दमन के अनुसार, अर्थव्यवस्था के बारे में लिखते समय उन्हें चुनौती का सामना करना पड़ा। ‘‘उनसे :मनमोहन सिंह से: आर्थिक मुद्दों पर बात करना मुश्किल था लेकिन उनके जीवन का बड़ा हिस्सा अर्थव्यवस्था को समर्पित रहा इसलिए मैंने न सिर्फ उनसे इस बारे में बात की बल्कि इसे लिखा भी।’’
    उन्होंने कहा ‘‘मैं उन मुद्दों को लेना चाहती थी जिन्हें मैं महत्वपूर्ण समझती थी.... उन्हें आम पाठक के लिए सरल भाषा में लिखना चाहती थी और मुझे उम्मीद है कि मैं ऐसा कर पाई।’’
    यह पूछे जाने पर कि क्या इस किताब पर फिल्म बनाई जाएगी, दमन सिंह ने कहा ‘‘मैं नहीं जानती। अगर फिल्म बनेगी तो मैं नहीं देखना चाहूंगी क्योंकि मैं अपनी किताब को ही पसंद करूंगी।’’
    किताब में पूर्व प्रधानमंत्री और उनके परिवार की तस्वीरें भी हैं।
(भाषा)

Wednesday, March 19, 2014

रचनाकार समाज को जोड़ने की दिशा में काम करें


 रचनाकारों को चाहिए कि वे समाज में मौजूदा बिखराव को देखते हुए अपनी जिम्मेवारी संभाले और लोगों को जोड़ने का काम करें। यह कहना है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व अध्यक्ष और प्रोफेसर डाक्टर जगबीर सिंह का। नेशनल बुक ट्रस्ट और पंजाबी साहित्य सभा, कोलकाता की ओर से आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होंने यह विचार व्यक्त किए। पंजाबी के जाने-माने उपन्यासकार मोहन काहलों के प्रसिद्ध उपन्यास बेड़ी ते बरेता के हिंदी अनुवाद कश्ती और बरेता के लोकार्पण के मौके पर उन्होंने यह विचार व्यक्त किए। नीलम शर्मा अंशु की ओर से अनुवादित उपन्यास का लोकार्पण कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट गेस्ट हाउस में किया गया। इस मौके पर खालसा कालेज माहलपुर के प्रिंसीपल सरदार सुरजीत सिंह रंधावा, वरिष्ठ पत्रकार विश्वंभर नेवर, गीतेश शर्मा, नेशनल बुक ट्रस्ट के हिंदी संपादक डाक्टर ललित मंडोरा, पंजाबी साहित्य सभा के अध्यक्ष सरदार हरदेव सिंह ग्रेवाल समेत हिंदी-पंजाबी के विभिन्न विद्वान उपस्थित थे।
डाक्टर जगबीर सिंह ने कहा कि भले ही हिंदी में उपन्यास परंपरा पश्चिमी की देन है लेकिन उपनिषदों में, कथा सागर में, महाभारत और रामायण में कथा कहने की जो परंपरा कायम रही है उसे भारतीय उपन्यासकारों ने जीवन दर्शन के माध्यम से लोगों के बीच पेश करने का काम किया है। इसमें अनुभव, विद्वता और भाषा का ज्ञान मिलकर पाठकों को उपन्यासकार की रचना के संसार में पहुंच जाता है।
उपन्यास में गुर्जर और मल्लाहों के कबीलाई जीवन दर्शन में साठ साल पहले के लोगों का रहन-सहन पेश किया गया है। जिससे तत्कालीन इतिहास के बारे में भी रोचक जानकारी मिलती है, जिसे लेखक ने नेशनल लाइब्रेरी में घंटों अनुसंधान करके जुटाया है।
उन्होंने कहा कि श्री गुरू ग्रंथ साहिब को भले ही सिखों का धर्म ग्रंथ माना जाता है लेकिन उसमें सिर्फ छह  सिख गुरूओं की रचना दर्ज है, जबकि दूसरे 26 लोगों की रचना का संचलन किया गया है। इसमें कबीर भी हैं और जैदेव भी हैं। समूचे ग्रंथ में लोगों में प्यार, सद्भाव के साथ जीवन यापन का दर्शन पेश किया गया है। ऐसा ही आज के रचनाकारों को भी करना चाहिए।
कोलकाता में पुस्तक के लोकार्पण के बारे में ललित मंडोरा ने कहा कि लेखक सालों से महानगर में रहते हैं और सभी लेखक चाहते हैं कि उनके लोगों के बीच रचना पहुंचे,इसलिए यहां आयोजन किया गया। इस मौके पर उन्होंने कहा कि इस उपन्यास को बांग्ला समेत दूसरी भाषाओं में भी अनुवादित किया जाएगा।
उपन्यास के बारे में बाद में परिचर्चा का आयोजन किया गया। इस मौके पर पत्रकार गीतेश शर्मा ने कहा कि रचनाकार का काम समाज में घटित को लोगों के सामने पेश करना भर है, यह लेखक का काम नहीं है कि नंगे को कपड़े पहनाकर पेश किया जाए। हिंदी पुस्तकों की दयनीय दशा का वर्णन करते हुए उन्होेंने कहा कि सरकारी खरीद बंद हो जाए तो हिंदी में पुस्तकें छपनी बंद हो जाएं। क्योंकि कोई भी पुस्तक 500 से लेकर एक हजार से ज्यादा नहीं छपती। जब हिंदी का यह हाल है तो पंजाबी और दूसरी भाषाओं का हाल तो जगजाहिर है। हालांकि बांग्ला इसका अपवाद है क्योंकि वहां लोग अभी भी पुस्तकें खरीदते हैं।
कार्यक्रम का संचालन पंजाबी साहित्य सभा के महासचिव सरदार जगमोहन सिंह गिल ने  किया। जबकि परिचर्चा का संचालन नीलम शर्मा अंशु ने किया। पत्रकार रावेल पुष्प, कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट में हिंदी अधिकारी सुमन सेठ के अलावा कई लोगों ने परिचर्चा में हिस्सा लिया और हाशिये के वर्ग पर पंजाबी उपन्यास के हिंदी में अनुवाद का स्वागत किया। 

Tuesday, March 4, 2014

इंटरनेट पर भी लड़ा जाएगा चुनाव

  चुनाव प्रचार करने के लिए जैसे खर्च की सीमा बढ़ गई है वहीं लोगों को लुभाने के लिए नए-नए तरीके अपनाए जा रहे हैं। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की इकलौती स्टार प्रचारक थी, इसलिए हेलीकाप्टर लेकर जगह-जगह प्रचार किया था। दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार कांड के बाद युवाओं में भड़के आक्रोश और आम आदमी पार्टी की विधानसभा चुनाव में शानदार सफलता के लिए सोशल मीडिया को प्रमुख कारक माना जाता है। इसलिए आगामी लोकसभा चुनाव सड़क और दीवारों के साथ ही इंटरनेट पर भी लड़ा जाएगा। इस मामले में पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, भाजपा, माकपा, कांग्रेस सभी सक्रिय हैं। हालांकि उनके चाहने वालों की संख्या में फर्क हो सकता है।आंकड़ों की बात करें तो ममता बनर्जी को फेसबुक पर लाइक करने वालों की संख्या छह लाख 25 हजार है तो उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी के चाहने वाले डेढ़ लाख, गोरखा जनमुक्ति मोर्चा नेता विमल गुरुंग के लगभग 15 हजार लोग हैं। भाजपा के हजारों चाहने वाले लगातार मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए अभियान छेड़े हुए हैं। इसमें नेता, कार्यकर्ता से लेकर दूसरे लोग भी शामिल हैं।  टविटर पर तृणमूल के डेरेक ओ ब्रायन के दो लाख से ज्यादा, शुभेंदु अधिकारी के 12 हजार से ज्यादा,माकपा के सांसद  ऋतव्रत बनर्जी के ग्यारह हजार से ज्यादा, भाजपा के तथागत राय के चार हजार से ज्यादा, तृणमूल के केडी सिंह और दिनेश त्रिवेदी के दो हजार से ज्यादा चाहने वाले हैं।मालूम हो कि हाल तक चुनाव प्रचार के तहत सोशल मीडिया में प्रचार पारंपरिक तरीका नही रहा है लेकिन अब हालात बदल गए हैं। राज्य के नेता और दल अब इस डिजीटल टेक्नोलॉजी पर अधिक ही भरोसा करते दिख रहे हैं। तृणमूल कांग्रेस की ओर से एक डेडिकेटेड वेबसाइट लॉन्च की गयी है। वहीं ट्वीटर और फेसबुक पर उसका प्रचार अभियान जारी है। पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को जोर शोर से प्रोजेक्ट किया जा रहा है।  इसके तहत बीते दिनों ‘ममता 4 मीडिया’  वेबसाइट लांच की गई है। इसकी टैगलाइन में दिया गया है कि ममता बनर्जी अब राष्ट्रीय बनी।वेबसाइट के अलावा पार्टी की ओर से यू-टयूूब पर आधिकारिक एकाउंट भी लांच किया गया है। राष्ट्रीय स्तर पर लोगों तक पहुंचने के लिए दल की ओर से यह प्रयास किए  जा रहे हैं। सूत्रों का कहना है कि दल के राष्ट्रीय अभियान के तहत  सोशल मीडिया के जरिए  लोगों की यह जानकारी में लाया जा रहा है कि देश के लिए तृणमूल कांग्रेस ही एकमात्र विकल्प है। अन्ना हजारे की ओर से  समाने लाए गए विकास के 17 सूत्रीय एजेंडे पर तृणमूल कांग्रेस जोर दे रही है।दूसरी ओर तृणमूल कांग्रेस के  राजनीतिक विरोधी भी खामोश नहीं बैठे हैं। तृणमूल के इस प्रचार को आड़े हाथों लेते हुए भी वह पीछे नहीं हैं।  भाजपा नेता तथागत राय भी सोशल मीडिया में मौजूद हैं और राज्य में छपे एक सर्वे पर कुछ दिन पहले टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि भले ही यहां भाजपा को एक भी सीट नहीं मिलती दिख रही लेकिन देश भर में मोदी की लहर और भाजपा के गठबंधन की शानदार बढ़त अच्छी है।इधर वरिष्ठ कांग्रेस नेता सोमेन मित्र ने पारंपरिक तौर तरीके से हटते हुए सोशल मीडिया के क्षेत्र में कदम रख दिया है।  हाल ही में वह तृणमूल कांग्रेस  छोड़कर कांग्रेस में शामिल हुए हैं और कोलकाता प्रेस क्लब में अपनी वेब साइट जारी की। उनका मानना है कि युवाओं के संपर्क में आने का यह बहुत अच्छा साधन है। उनकी तरह ही वाममोर्चा नेता भी पीछे नहीं है। माकपा नेता निरुपम सेन, राज्यसभा सांसद ऋतव्रत बनर्जी व रोबिन देव भी फेसबुक पर काफी सक्रिय हैं।हालांकि कुछ लोगों का यह भी कहना है कि सोशल मीडिया प्रचार के लिए प्रभावी साधन नहीं हो सकता। भले ही  इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या बढ़ रही है और लोग आनलाइन अभियान से प्रभावित भी होते हैं लेकिन यह केवल शहरी आबादी को अपना लक्ष्य बनाती है। इनमें से कई ऐसे हैं जिनका राजनीति से मोहभंग हो गया है और कई तो वोट करने भी नहीं जाते।  उनका कहना है कि सोशल मीडिया पर तृणमूल कांग्रेस का प्रयास उन्हें अधिक लाभ नहीं प्रदान करने वाला है। हालांकि दूसरी ओर कुछ लोगों का कहना है कि समाचार पत्रों में विज्ञापन और खबरों के लिए जितने पैसे लगते हैं, यहां मुफ्त में ज्यादा लोगों तक सीधे संपर्क हो जाता है।इस बारे में एक दल के नेता का कहना है कि लोकसभा चुनाव में युवा मतदाताओं की अहम भूमिका होगी। गांव-देहात में भी इंटरनेट का व्यवहार करने वाले समचार पत्र पढ़ने वालों से कम नहीं हैं। इसका पता इसके चलता है कि दिन प्रतिदिन इंटरनेट की कीमतें कंपनियां घटाती जा रही हैं जबकि समाचार पत्रों के दाम बढ़ते जा रहे हैं। महंगाई के दौर में लोग सस्ता और अच्छा तलाशते हैं और सोशल मीडिया इसका सबसे बड़ा साधन है। अमिताभ बच्चन जैसे अभिनेता प्रेस कांफ्रेंस करने के बजाए फेसबुक पर सीधे लाखों लोगों तक पहुंचने को पहल देते हैं। 

रेलवे यात्रियों को देना होगा हलफनामf

 रेलवे में नित्य यात्रा करने वालों को आंदोलन से दूर रखने के लिए रेलवे की ओर से विशेष योजना तैयार की गई है। इसके तहत ट्रेनों के देरी से आने या दूसरी किसी वजह से रेल रोको आंदोलन में शामिल होने और इसके बाद रेलवे की संपति तोड़ने-फोड़ने वालों को अब कम किराए में सफर करने की सुविधा हासिल नहीं होगी। ऐसा करने के बाद पकड़े जाने पर उन्हें मासिक टिकट या पास नहीं दिया जाएगा, पुराना तो जब्त हो जाएगा। रेलवे के नए नियमों के मुताबिक  मासिक या त्रैमासिक टिकट लेकर प्रतिदिन रेलवे में सफर करने वालों को हलफनामा देना होगा कि वे किसी भीतरह की हिंसक गतिविधि में शामिल नहीं होंगे और इसके बाद पकड़े जाने पर उन्हें मासिक टिकट नहीं मिलेगा।मालूम हो कि 13 फरवरी की रात नौ बजे सियालदह स्टेशन जंग के मैदान में तब्दील हो गया था। प्रतिदिन रेलगाड़ियांदेरी से आने के विरोध में यात्रियों का गुस्सा फूट पड़ा। इसके बाद नाराज लोगों ने सियालदह   मेन शाखा में जमकर उत्पात मचाया। ट्रेनों में तोड़फोड़ करके ही उनका गुस्सा शांत नहीं हुआ आरोप है कि रेलवे कर्मचारियों की भी यात्रियों ने पिटाई की थी।इसके अलावा रानाघाट लोकल से पहले लालगोला पैसेंजर को पास करा दिया गया था। सियादलह मेन शाखा में एक घंटे से भी ज्यादा समय तक रेलगाड़ियां रोक डाली। इसके बाद उन्होंने ट्रेन के गार्ड और चालक को भी पीट दिया। ऐसी घटनाएं पूर्व रेलवे के सियालदह शाखा में कोई नई बात नहीं है। लेकिन नई बात यह है कि अगर ऐसी किसी घटना के दौरान रेलवे पुलिस या आरपीएफ  आपको गिरफ्तार करती है तो जिंदगी में कभी भी दोबारा मासिक टिकट नहीं हासिल कर सकेंगे। ऐसे लोगों को प्रतिदिन रेलवे का टिकट कटा कर ही यातायात करना होगा।सूत्रों के मुताबिक रेलवेबोर्ड की ओर से इस तरह का फैसला किया गया है। सियालदह और हावड़ा समेत राज्य के कई स्टेशनों पर इस बारे में सूचना लगा दी गई है। इसमें कहा गया है कि मासिक टिकट लेने वालों को रेलवे की ओर से जारी किए गए एक फार्म के मुताबिक हलफनामा भर कर देना होगा। इसमें यात्रियों को हलफनामा दायर करके बताना होगा कि वे ट्रेन या प्लेटफार्म पर किसी भी तरह के समाजविरोधी काम में शामिल नहीं होगे। लेकिन अगर रेलवे की संपति तोड़फोड़ करते हुए, रेलवे कर्मचारी से मारपीट करने जैसे किसी आपराधिक काम में शामिल पाया गया तो उनका मासिक टिकट तो रद्द होगा ही, वह यात्री सारी जिंदगी ट्रेन में मासिक टिकट पर सफर नहीं कर सकेगा।सूत्रों का कहना है कि कई स्टेशनों पर यह व्यवस्था शुरू भी हो गई है। वहां मासिक टिकट लेने वाले यात्रियों को एक फार्म थमा दिया जाता है। फार्म भरने के बाद रेलवे क्लर्क को जमा देने के बाद ही मासिक टिकट दिया जा रहा है। हालांकि रेलवे की ओर से जारी किए गए आदेश से यात्री परेशान हैं। कुछ लोगों का कहना है कि रेलवे का फैसला सही है वहीं कुछ लोग मानते हैं कि इसका कोई फायदा नहीं होगा।कई नित्ययात्रियों का कहना है कि रेलवे के इस फैसले से ऐसा लगता है कि रेलवे यात्रियों की आवाज बंद करना चाहता है। वह  मर्जी के मुताबिक रेलगाड़ियां चलाए लेकिन कोई इसका विरोध नहीं करे कि ट्रेन देरी से चल रही है या रद्द कर दी गई है। किसीतरह की सुनवाई नहीं होगी। दक्षिण पूर्व रेलवे की लोकल ट्रेनों के यात्री परेशान रहते हैं क्योंकि कोई भी ट्रेन समय पर नहीं आती। सालों से यह चल रहा है क्योंकि विरोध नहीं होता। मौड़ीग्राम के एक यात्री के मुताबिक सुबह 7.44 के बाद लगभग एक घंटे बाद हावड़ा के लिए ट्रेन आती है। इसके बीच एक ट्रेन चलती है लेकिन वह सिर्फ सांतरागाछी तक जाती है। रेलवे लोगों की जुबान बंद करने के फरमान तो जारी करता रहता है, किराया वृद्धि करता रहता है लेकिन यात्री सुविधाओं-समस्याओं की सुध लेने की फिक्र नहीं दिखती है।  

होली से सरकारी कर्मचारियों की छुट््िटयों की सौगात शुरू

 होली से सरकारी कर्मचारियों की छुट््िटयों की सौगात शुरू होने जा रही है। डीए में वृद्धि के बाद जहां पहले से तय छुट््िटयों की सूची तो है ही इसके साथ ही लोकसभा चुनावों के मद्देनजर ढेर सारी छुट््िटयां मिलने जा रही हैं। हालांकि सरकारी दफ्तर को खुले रहेंगे, लेकिन सभी की नजरें चुनाव पर ही रहेंगी।
मालूम हो कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने रविवार होली होने के कारण सोमवार को सरकारी छुट््टी का एलान कर दिया है। इस तरह होली के लिए 15 से लेकर 17 मार्च तक लगातार तीन दिन तक सरकारी कर्मचारियों की छुट््टी रहेगी। इसके बाद अप्रैल में 12 से लेकर 15 और 18 से लेकर 20 अप्रैल तक छुट््टी है। मई में एक और तीन-चार छुट््टी है। सितंबर-अक्तूबर में 30 सितंबर से लेकर आठ अक्तूबर तक छुट््टी के बाद दो दिन के अंतराल बाद ग्यारह और 12 अक्तूबर को छुट््टी है। अक्तूबर महीने में 18-19 के बाद 23 से लेकर 26 अक्तूबर तक छुट््टी रहेगी। नवंबर महीने में एक, दो, चार, छह, आठ और नौ नवंबर छुट््टी है। दिसंबर में 25, 27-28 छुट््टी है।
लोकसभा चुनाव के पहले काम करने के लिए राज्य सरकार ने कैलेंडर जारी किया है। लेकिन छुट््िटयों के कारण काम कैसे पूरा हो पाएगा? चिंता इसे लेकर है। मार्च में जहां होली के कारण लगातार तीन दिन की छुट््टी मिल रही है। वहीं अप्रैल में 16-17 अप्रैल छुट््टी लेने पर एक साथ शनिवार-रविवार समेत छुट््टी के नौ दिन मिल जाएंगे। इसी तरह मई में एक दिन दो मई को छुट््टी ले ली तो चार दिन तक लगातार छुट््टी रहेगी। दुर्गापूजा और कालीपूजा में तो छुट््िटयों की बहार है। इसके बाद साल के अंत में नवंबर -दिसंबर के महीने में तो वैसे भी नए साल के आगमन को लेकर सरकारी कर्मचारी व्यस्त रहते हैं। इसलिए काम कौन करेगा यह सोचना की बात है। सवाल यह  है कि इतनी ज्यादा और लगातार छुट््िटयां होने के कारण क्या सरकार तय समय पर कैलेंडर के मुताबिक काम कर सकेगी या नहीं? 

Monday, February 3, 2014

आम आदमी पार्टी के सदस्यों पर खुफिया एजेंसियों की नजर


रंजीत लुधियानवी
कोलकाता, 2 फरवरी । कोना में आम आदमी पार्टी की ओर से सदस्यता अभियान चलाया जा रहा है, डनलप में कितने लोग इस दल में शामिल हुए और आगामी चार फरवरी को कालेज स्कवायर से निकलने वाली रैली में कितने लोग शामिल होंगे, इस बारे में खुफिया एजेंसियों की खास नजर है।
सूत्रों से पता चला है कि केंद्र सरकार की इंटेलिजेंस ब्यूरो की राज्य शाखा (आईबी) की ओर से सवालों की एक सूची तैयार की गई है।इसके मुताबिक पश्चिम बंगाल में अब तक कितने लोग आम आदमी पार्टी के सदस्य बन गए हैं? कितने लोग अभी तक दूरी कायम रख कर दल को नैतिक समर्थन दे रहे हैं? इनमें से कोई खास आदमी तो नहीं है, अगर है तो उसकी राजनीतिक पृष्ठभूमि क्या रही है? राज्य में किस-किस जिले में कार्यालय बनाए गए हैं? जिला शाखाओं की जिम्मेवारी किसके पास है? ऐसे लोगों का संपूर्ण बायोडाटा कि उनका परिचय क्या है, समाज में क्या स्थिति है, क्या कामकाज करते हैं, शामिल है।
इसके साथ ही सवालों की लड़ी में यह भी शामिल है कि लोकसभा में कितनी सीटों पर आप चुनाव लड़ सकता है? इतना ही नहीं किस दल के खिलाफ उम्मीदवार उतारने की तैयारी की जा रही है। किस राजनीतिक दल का समर्थन लेकर चुनाव लड़ने की कोशिश चल रही है। क्या राज्य की सभी 42 सीटों पर मुकाबला करेंगे और लोकसभा में किसे टिकट दिया जा सकता है।
सवालों की सूची मेंं यह भी शामिल है कि अकेले चुनाव लड़ने पर उन्हें कितनी सीटें मिल सकती है? सीटें अगर नहीं मिलती हैं तो वोट काटने पर तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस, माकपा, भाजपा को किसे कितना नुकसान पहुंच सकता है। यह वोट कितने फीसद तक घट सकते हैं। उम्मीदवारों की सूची में कितने खास लोग शामिल हो सकते हैं और उन पर लोगों की क्या प्रतिक्रिया होगी? इतना ही नहीं राज्य में किस संस्था,राजनीतिक और गैर राजनीतिक दल की ओर से उन्हें समर्थन किया जा रहा है? उन्हें रकम कहां से मिल रही है। बताया जाता है कि फरवरी में ही यह रिपोर्ट केंद्र सरकार को भेज दी जाएगी।
सूत्रोें का कहना है कि सवालों के जवाब तलाशने के लिए खुफिया विभाग ने गुप्त तरीके से राज्य के आम आदमी पार्टी के सदस्यों की गतिविधियों पर नजर रखने के साथ ही कई विभिन्न स्तर के नेताओं से बातचीत भी की है। हालांकि सूत्रों का कहना है कि अभी सारे तथ्य इकट्ठा नहीं किए जा सके हैं। इसका कारण यह है कि लोकसभा के उम्मीदवारों की सूची तैयार होने में अभी कुछ समय लग सकता है। माना जा रहा है कि फरवरी के मध्य तक उम्मीदवारोे ं की सूची तैयार हो जाएगी। इसके बाद केंद्र को रिपोर्ट भेजी जाएगी।
सूत्रों का कहना है कि कई खास लोगों के आप से संबंध के बारे में आईबी को जानकारी मिली है। इसके तहत राज्य का एक बुद्धीजीवी शामिल है। बताया जाता है कि 30 जनवरी को वे ब्रिगेड की तृणमूल कांग्रेस की रैली में मंच पर सुशोभित थे। उन्होंने दल से कहा है कि वे नैतिक समर्थन देते रहेंगे। जबकि एक प्रसिद्ध गायिका और विवादों में घिरे रहने वाले आईपीएस अधिकारी भी शामिल हैं।
सूत्रों के मुताबिक आम आदमी पार्टी के बारे में हासिल की जाने वाली जानकारी कोई नई बात नहीं है। सदैव से यह प्रचलन रहा है कि किसी भी नई संस्था, संगठन या दल के गठन के बाद खुफिया विभाग को उसका ब्यौरा इकट्ठा करना पड़ता है। भले ही वह राजनीतिक संगठन हो या गैर राजनीतिक संगठन, इससे कोई सरोकार नहीं है। इसलिए राज्य में नए दल के गठन को लेकर लोकसभा चुनाव से पहले ब्यौरा इकट्ठा करना रुटीन बात है।
हालांकि दूसरी ओर कुछ लोगों का कहना है कि आगामी लोकसभा चुनाव जिस हालत में हो रहे हैं, उसमें स्पष्ट है कि किसी भी दल को बहुमत नहीं मिलेगा। ऐसे में क्षेत्रीय दलों के साथ ही आप की भी अहम भूमिका हो सकती है। एक व्यक्ति के मुताबिक इस साल होने वाले लोकसभा चुनाव में 60 फीसद से ज्यादा युवा समाज के   मतदाता शामिल हैं। तमाम सोशल नेटवर्किंग साइट का इस्तेमाल करके आप ने उन्हें अपने साथ जोड़ने में सफलता हासिल की है। नई दिल्ली विधानसभा के परिणाम इसकी ताजा मिसाल हैं। इसका ही नतीजा है कि कई सर्वे में मोदी के बाद अरविंद केजरीवाल राहुल गांधी को पछाड़ कर प्रधानमंत्री की दौड़ में दूसरे स्थान पर चल रहे हैं।
कई राजनीतिक विशेषज्ञ मानते हैं कि चुनाव में भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा होगा। आप की ओर से प्रकाशित बेईमानों की सूची में जहां कांग्रेस के बड़े नाम शामिल हैं वहीं भाजपा भी इससे अछुती नहीं है। समाजवादी पार्टी से लेकर बहुजन समाज पार्टी के लोग इसमें शामिल हैं। देश में 350 सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान करने के बाद सभी राजनीतिक दलों के खिलाफ मोर्चा खोलने से माना जा रहा है कि कांग्रेस का वोट बैंक तो प्रभावित होगा ही दूसरे दल भी इसके प्रभाव से नहीं बच सकेंगे।
ऐसे हालात में आप की कालेज स्कवायरकी रैली निकलने वाली है। राज्य प्रशासन के एक अधिकारी के मुताबिक आप के गठन के बाद एक बार रुटीन पड़ताल की गई थी, अब लोकसभा के पहले दल की पूरी जन्मपत्री तैयार की जा रही है। 

Thursday, January 16, 2014

कोचिंग कारोबार तले अंधेरा

  भारत में ट्यूशन उद्योग के अध्ययन पर आधारित एशिया डेवलपमेंट बैंक की इस रिपोर्ट के अनुसार आज शहरों में अपने बच्चों की ट्यूशन पर अभिभावक प्रतिमाह औसत 2349 रुपए और गांवों में 1456 रुपए खर्च करते हैं। तथ्य यह है कि इंजीनियरिंग, डाक्टरी, मैनेजमेंट या अन्य किसी भी पेशेवर कालेज में प्रवेश के लिए आजकल ट्यूशन लेना लगभग जरूरी हो चला है। पेशेवर कालेज ही क्यों, प्रशासनिक सेवा, फौज या सरकारी स्कूल में मास्टर की नौकरी पाने के लिए भी कोचिंग इंस्टिट्यूट की शरण लेना अब एक अनिवार्य शर्त बन चुकी है। एसोसिएटेड चेम्बर आफ कामर्स इंडस्ट्री आफ इण्डिया (एसोचेम) द्वारा दस बड़े नगरों में कराए अध्ययन की रिपोर्ट से इस बात को और साफ समझा जा सकता है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बेंगलुरू, जयपुर, हैदराबाद, अहमदाबाद, लखनऊ और चंडीगढ़ में किये सर्वे से चौंकाने वाला सच सामने आया। इन नगरों में प्राइमरी कक्षा के 87 फीसदी और सेकेंडरी स्तर के 95 प्रतिशत बच्चे ट्यूशन पढ़ते हैं।
उक्त तथ्यों से तो यही निष्कर्ष निकलता है कि अच्छी स्कूली शिक्षा, पेशेवर पाठ्यक्रमों और बेहतर नौकरियों की होड़ से गरीब और निम्न मध्य वर्ग को सुनियोजित तरीके से बाहर किया जा रहा है। पैसे की ताकत ने आर्थिक दृष्टि से पिछड़ी जमात के बच्चों के लिए प्रतिष्ठित संस्थानों में दाखिला लेना या अच्छी नौकरी पाना असंभव बना दिया है। आज शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को अच्छा इनसान बनाना नहीं, नौकरी के बाजार के काबिल बनाना है। अच्छी नौकरी पाने के लिए अच्छे संस्थान में प्रवेश पाना पहली शर्त है और प्रवेश के लिए अच्छे कोचिंग इंस्टिट्यूट या महंगी ट्यूशन पढऩा अनिवार्य है। ट्यूशन के लिए मोटा पैसा चाहिए और जिसकी हैसियत ट्यूशन फीस चुकाने की नहीं है, वह खुद-ब- खुद अच्छी नौकरी की होड़ से बाहर हो जाता है।
ट्यूशन में फोकस ज्ञानवर्धन नहीं होता बल्कि वहां परीक्षा पास करने के गुर सिखाए जाते हैं और इसकी मोटी कीमत वसूली जाती है। भारत में ट्यूशन फीस एक से चार हजार रुपये महीने के बीच है जबकि व्यक्तिगत ट्यूटर हजार से पांच हजार रुपए घंटे के बीच लेते हैं। मां-बाप की जैसी हैसियत होती है, वे अपने बच्चों को वैसी ही ट्यूशन लगवाते हैं। एक अध्ययन के अनुसार आज मध्य आय वर्ग के लोग अपनी आमदनी का एक-तिहाई पैसा बच्चों की ट्यूशन पर खर्च कर रहे हैं। उनका एक ही सपना होता है कि बच्चा कैसे भी डाक्टर, इंजीनियर, एमबीए बन जाए।
कहने को ट्यूशन या कोचिंग को संगठित क्षेत्र में नहीं गिना जाता लेकिन जानकारों का मानना है कि आज यह धंधा दुनिया के सबसे तेजी से फल-फूल रहे प्रथम 16 कारोबारों में शुमार है। आज दुनिया में कोचिंग का कारोबार लगभग 63 खरब रुपये का है और इसकी विकास दर सात फीसदी है। भारत ट्यूशन बाजार का सरगना है। फिलहाल हमारे देश में इस धंधे से सालाना लगभग 14 अरब रुपये की कमाई हो रही है जो 2015 में बढ़कर 23.86 अरब हो जाने की सम्भावना है। अब अनेक बड़े औद्योगिक घराने भी कोचिंग के काम में उतर आए हैं।
स्कूलों में अच्छे शिक्षकों का अभाव, शिक्षकों द्वारा कक्षा में पढ़ाने के बजाय ट्यूशन पर ध्यान देने, कक्षा में छात्रों की बढ़ती संख्या, अभिभावकों के पास समय की कमी, पेशेवर संस्थानों में प्रवेश की गारंटी तथा बच्चों की मानसिक असुरक्षा भी कुछ अन्य कारण हैं। तीन दशक पहले इंजीनियरिंग और मेडिकल कालेजों में प्रवेश पाने वाले अधिकांश छात्र सरकारी स्कूलों के होते थे। अब स्थिति उलट गई है। सरकार का ध्यान सरकारी स्कूलों की शिक्षा की गुणवत्ता पर बिल्कुल नहीं है। सर्वशिक्षा अभियान में भी गुणवत्ता की उपेक्षा की गई है। निजी स्कूल तो मुनाफे की अवधारणा पर ही टिके हैं। ऐसे में ट्यूशन के धंधे को फलने-फूलने से कौन रोक सकता है ?
पिछले पांच साल में बड़ी संख्या में निजी कालेज और विश्वविद्यालय खुले, फिर भी शिक्षा का स्तर उठ नहीं पाया। छात्रों को अच्छी नौकरी पाने या अच्छे संस्थानों में प्रवेश के लिए ट्यूशन की बैसाखी का सहारा लेना ही पड़ता है। जिन संस्थानों को हम सर्वश्रेष्ठ मानते हैं, दुनिया के नक्शे पर उनकी कोई पहचान नहीं है। आज विश्व के श्रेष्ठ दो सौ विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थानों में से एक भी भारतीय नहीं है। जिन आईआईटी और आईआईएम पर हम इतराते हैं, वे भी इस सूची में स्थान बनाने में विफल रहे हैं। दूसरी ओर ब्रिक्स देशों में चीन के सात तथा ब्राजील, रूस और दक्षिण अफ्रीका के एक-एक विश्वविद्यालय इस सूची में आते हैं। एक अध्ययन के अनुसार देश के 75 फीसदी टेक्निकल ग्रेजुएट और 90 प्रतिशत जनरल ग्रेजुएट नौकरी पाने लायक नहीं हैं। सा$फ है जब हमारे यहां उच्च शिक्षा का स्तर ऐसा है तब दुनिया के श्रेष्ठ शिक्षा संस्थानों में शुमार होने की कल्पना कैसे की जा सकती है?
उच्च शिक्षा और पेशेवर संस्थानों में ग्रामीण इलाकों और पिछड़े वर्ग की दुर्दशा को यूं भी समझा जा सकता है। सन् 2008 में उच्च शिक्षा संस्थानों में ग्रामीण इलाकों के छात्रों की संख्या 45 फीसदी थी जबकि देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती थी। जनजातियों, अनुसूचित जातियों और पिछड़ी जातियों का प्रतिशत क्रमश: चार, 13.5 और 35 था जो उनकी जनसंख्या से नीचे था। इन आंकड़ों से पता चलता है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कितनी असमानता है और ट्यूशन के धंधे से यह असमानता घटने की बजाय और बढ़ रही है।