Thursday, January 16, 2014

कोचिंग कारोबार तले अंधेरा

  भारत में ट्यूशन उद्योग के अध्ययन पर आधारित एशिया डेवलपमेंट बैंक की इस रिपोर्ट के अनुसार आज शहरों में अपने बच्चों की ट्यूशन पर अभिभावक प्रतिमाह औसत 2349 रुपए और गांवों में 1456 रुपए खर्च करते हैं। तथ्य यह है कि इंजीनियरिंग, डाक्टरी, मैनेजमेंट या अन्य किसी भी पेशेवर कालेज में प्रवेश के लिए आजकल ट्यूशन लेना लगभग जरूरी हो चला है। पेशेवर कालेज ही क्यों, प्रशासनिक सेवा, फौज या सरकारी स्कूल में मास्टर की नौकरी पाने के लिए भी कोचिंग इंस्टिट्यूट की शरण लेना अब एक अनिवार्य शर्त बन चुकी है। एसोसिएटेड चेम्बर आफ कामर्स इंडस्ट्री आफ इण्डिया (एसोचेम) द्वारा दस बड़े नगरों में कराए अध्ययन की रिपोर्ट से इस बात को और साफ समझा जा सकता है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बेंगलुरू, जयपुर, हैदराबाद, अहमदाबाद, लखनऊ और चंडीगढ़ में किये सर्वे से चौंकाने वाला सच सामने आया। इन नगरों में प्राइमरी कक्षा के 87 फीसदी और सेकेंडरी स्तर के 95 प्रतिशत बच्चे ट्यूशन पढ़ते हैं।
उक्त तथ्यों से तो यही निष्कर्ष निकलता है कि अच्छी स्कूली शिक्षा, पेशेवर पाठ्यक्रमों और बेहतर नौकरियों की होड़ से गरीब और निम्न मध्य वर्ग को सुनियोजित तरीके से बाहर किया जा रहा है। पैसे की ताकत ने आर्थिक दृष्टि से पिछड़ी जमात के बच्चों के लिए प्रतिष्ठित संस्थानों में दाखिला लेना या अच्छी नौकरी पाना असंभव बना दिया है। आज शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को अच्छा इनसान बनाना नहीं, नौकरी के बाजार के काबिल बनाना है। अच्छी नौकरी पाने के लिए अच्छे संस्थान में प्रवेश पाना पहली शर्त है और प्रवेश के लिए अच्छे कोचिंग इंस्टिट्यूट या महंगी ट्यूशन पढऩा अनिवार्य है। ट्यूशन के लिए मोटा पैसा चाहिए और जिसकी हैसियत ट्यूशन फीस चुकाने की नहीं है, वह खुद-ब- खुद अच्छी नौकरी की होड़ से बाहर हो जाता है।
ट्यूशन में फोकस ज्ञानवर्धन नहीं होता बल्कि वहां परीक्षा पास करने के गुर सिखाए जाते हैं और इसकी मोटी कीमत वसूली जाती है। भारत में ट्यूशन फीस एक से चार हजार रुपये महीने के बीच है जबकि व्यक्तिगत ट्यूटर हजार से पांच हजार रुपए घंटे के बीच लेते हैं। मां-बाप की जैसी हैसियत होती है, वे अपने बच्चों को वैसी ही ट्यूशन लगवाते हैं। एक अध्ययन के अनुसार आज मध्य आय वर्ग के लोग अपनी आमदनी का एक-तिहाई पैसा बच्चों की ट्यूशन पर खर्च कर रहे हैं। उनका एक ही सपना होता है कि बच्चा कैसे भी डाक्टर, इंजीनियर, एमबीए बन जाए।
कहने को ट्यूशन या कोचिंग को संगठित क्षेत्र में नहीं गिना जाता लेकिन जानकारों का मानना है कि आज यह धंधा दुनिया के सबसे तेजी से फल-फूल रहे प्रथम 16 कारोबारों में शुमार है। आज दुनिया में कोचिंग का कारोबार लगभग 63 खरब रुपये का है और इसकी विकास दर सात फीसदी है। भारत ट्यूशन बाजार का सरगना है। फिलहाल हमारे देश में इस धंधे से सालाना लगभग 14 अरब रुपये की कमाई हो रही है जो 2015 में बढ़कर 23.86 अरब हो जाने की सम्भावना है। अब अनेक बड़े औद्योगिक घराने भी कोचिंग के काम में उतर आए हैं।
स्कूलों में अच्छे शिक्षकों का अभाव, शिक्षकों द्वारा कक्षा में पढ़ाने के बजाय ट्यूशन पर ध्यान देने, कक्षा में छात्रों की बढ़ती संख्या, अभिभावकों के पास समय की कमी, पेशेवर संस्थानों में प्रवेश की गारंटी तथा बच्चों की मानसिक असुरक्षा भी कुछ अन्य कारण हैं। तीन दशक पहले इंजीनियरिंग और मेडिकल कालेजों में प्रवेश पाने वाले अधिकांश छात्र सरकारी स्कूलों के होते थे। अब स्थिति उलट गई है। सरकार का ध्यान सरकारी स्कूलों की शिक्षा की गुणवत्ता पर बिल्कुल नहीं है। सर्वशिक्षा अभियान में भी गुणवत्ता की उपेक्षा की गई है। निजी स्कूल तो मुनाफे की अवधारणा पर ही टिके हैं। ऐसे में ट्यूशन के धंधे को फलने-फूलने से कौन रोक सकता है ?
पिछले पांच साल में बड़ी संख्या में निजी कालेज और विश्वविद्यालय खुले, फिर भी शिक्षा का स्तर उठ नहीं पाया। छात्रों को अच्छी नौकरी पाने या अच्छे संस्थानों में प्रवेश के लिए ट्यूशन की बैसाखी का सहारा लेना ही पड़ता है। जिन संस्थानों को हम सर्वश्रेष्ठ मानते हैं, दुनिया के नक्शे पर उनकी कोई पहचान नहीं है। आज विश्व के श्रेष्ठ दो सौ विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थानों में से एक भी भारतीय नहीं है। जिन आईआईटी और आईआईएम पर हम इतराते हैं, वे भी इस सूची में स्थान बनाने में विफल रहे हैं। दूसरी ओर ब्रिक्स देशों में चीन के सात तथा ब्राजील, रूस और दक्षिण अफ्रीका के एक-एक विश्वविद्यालय इस सूची में आते हैं। एक अध्ययन के अनुसार देश के 75 फीसदी टेक्निकल ग्रेजुएट और 90 प्रतिशत जनरल ग्रेजुएट नौकरी पाने लायक नहीं हैं। सा$फ है जब हमारे यहां उच्च शिक्षा का स्तर ऐसा है तब दुनिया के श्रेष्ठ शिक्षा संस्थानों में शुमार होने की कल्पना कैसे की जा सकती है?
उच्च शिक्षा और पेशेवर संस्थानों में ग्रामीण इलाकों और पिछड़े वर्ग की दुर्दशा को यूं भी समझा जा सकता है। सन् 2008 में उच्च शिक्षा संस्थानों में ग्रामीण इलाकों के छात्रों की संख्या 45 फीसदी थी जबकि देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती थी। जनजातियों, अनुसूचित जातियों और पिछड़ी जातियों का प्रतिशत क्रमश: चार, 13.5 और 35 था जो उनकी जनसंख्या से नीचे था। इन आंकड़ों से पता चलता है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कितनी असमानता है और ट्यूशन के धंधे से यह असमानता घटने की बजाय और बढ़ रही है।