Sunday, February 5, 2017

बंगाल पुलिस की नजर में आतंकवादी हैं सिख ?

कोलकाता, 5 फरवरी (जनसत्ता)।
बीते 30-32 साल के दौरान देश में पता नहीं कितना परिवर्तन आ चुका है, राज्य में इस दौरान तीन दशक से सत्ता कर रही वामपंथी सरकार का जमाना गुजरे दिनों की बात हो चुका है। अब यहां आधुनिकता और विकास की बात करने वाली मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस सरकार का शासन छह साल से चल रहा है। लेकिन पुलिस का आलम यह है कि वही पुराने ढर्रे पर चल रही है। केंद्र में कांग्रेस की सरकार का बहुमत जाने और मिली जुली सरकारों के बाद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार के गठन के बाद रवैये में फेरबदल हुआ है। बंगाल में पुलिस का सिखों के प्रति नजरिया नहीं बदला है। इसलिए कई सिखों की ओर से आरोप लगाया जाता है कि पुलिस वाले अब भी उन्हें आतंकवादी मानते हैं।
गौरतलब है कि बीते साल भवानीपुर के खालसा स्कूल में अल्पसंख्यक आयोग के सदस्य के साथ हुई बैठक में कई सिखों ने आरोप लगाया था कि पासपोर्ट बनवाने में पश्चिम बंगाल में भारी परेशानी होती है। जबकि बिहार, ओडिसा, उत्तर प्रदेश, पंजाब,दिल्ली , हरियाणा समेत दूसरे राज्यों में ऐसे नहीं होता है। 1984 में जब पंजाब में विभिन्न मांगों को लेकर अकाली दल आंदोलन कर रहा था, तत्कालीन प्रधानमंत्री की हत्या के बाद सिखों पर अलगाववादी होने का ठप्पा लगा दिया था। पुलिस मुकाबलोौं से बचने के लिए लोग विदेश जाने लगे थे। इस दौरान विदेश जाने वाले सिखों के लिए कई तरह के नियम-कानून बनाए गए थे। आरोप है कि सिखों की काली सूची भी बनाई गई थी। अब केंद्र और पंजाब में अकाली-भाजपा सरकार है और हालात बदल चुके हैं। लेकिन बंगाल में लगता है कि हालात नहीं बदले हैं।
हावड़ा जिले के सांकराईल थाना इलाके में एक सिख पति-पत्नी ने 10 जनवरी को पासपोर्ट के लिए आवेदन किया था। हावड़ा जिले में ही  शिवपुर थाना इलाके की एक मुस्लिम युवती ने 12 जनवरी को पासपोर्ट के लिए आवेदन किया था। मुस्लिम महिला को जनवरी में ही पासपोर्ट मिल गया, लेकिन सिख दंपत्ति की अभी तक पुलिस वेरिफिकेशन भी क्लीयर नहीं हुई। हालांकि पुलिस वाले एक हजार रुपए से ज्यादा डकार चुके हैं।
इस बारे में सांकराईल थाना के एक डीआइबी अधिकारी का कहना है कि सिखों के लिए पासपोर्ट बनाना आसान नहीं है। इसके लिए बहुत सारी जांच होती है। फाईल पुलिस थाने, डीआइबी समेत कई जगह जाती है। जब उनसे यह कहा गया कि पुलिस का काम कागजात की जांच करना नहीं, सिर्फ यह देखना है कि पासपोर्ट बनाने वाला व्यक्ति उस इलाके में रहता है या नहीं और उसके खिलाफ कोई आपराधिक रिकार्ड है या नहीं, इसका ब्योरा देना है। उनका कहना था कि सिखों के मामले में ऐसा नहीं है। यह यह पूछा गया कि इस बारे में कोई लिखित निर्देश आपसे पास है, उनका कहना था कि सालों से ऐसे ही चल रहा है। इस बारे में आप उच्चाधिकारियों से बातचीत कर सकते हैं।
राज्य अल्पसंख्यक आयोग के सदस्य गुरबख्स सिंह से जब यह पूछा गया कि क्या वास्तव में सिखों के लिए पासपोर्ट जांच के लिए अलग कानून है? उनका कहना था कि ऐसा तो नहीं है। उन्होंने बताया कि ऐसी कुछ शिकायतें पहले भी मिली हैं, इस बारे में उच्च स्तर तक पड़ताल की जाएगी। उन्होंने कहा कि अगर सिखों के साथ भेदभाव का रवैया अपनाया जाता है, तब यह बहुत गलत  बात है। ऐसी बातों को किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। 

Monday, August 10, 2015

भारत में हैं अठारह सौ से अधिक राजनीतिक दल


 प्रेट्र : राजनीतिक दलों की वादा खिलाफी उपजी निराशा के दौर से गुजर रहे भारत में चुनावी पार्टियों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। मार्च 2014 से इस वर्ष जुलाई के बीच चुनाव आयोग में करीब 239 संगठनों ने खुद को राजनीति दल के रूप में दर्ज कराया है। नए संगठनों के दर्ज होने के बाद देश में राजनीतिक दलों की संख्या 1866 हो गई है।1आयोग के मुताबिक, इस वर्ष 24 जुलाई तक उसके यहां 1866 राजनीतिक दल दर्ज हो गए थे। इनमें से 56 को पंजीकृत राष्ट्रीय या राज्य पार्टियां की मान्यता मिली। शेष ‘गैर मान्यता प्राप्त’ के रूप में पंजीकृत हुई हैं। आयोग द्वारा तैयार आंकड़े के अनुसार, वर्ष 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में 464 राजनीतिक दलों ने अपने प्रत्याशी उतारे थे।1आयोग का आंकड़ा संसद में इस्तेमाल करने के लिए कानून मंत्रलय को सौंपा गया था। मंत्रलय का विधायी विभाग चुनाव आयोग के लिए प्रशासनिक इकाई है।1चुनाव आयोग ने बताया है कि 10 मार्च 2014 तक देश में 1,593 राजनीतिक पार्टियां थीं। 11 मार्च से 21 मार्च के बीच 24 और दल पंजीकृत हुए। 26 मार्च तक 10 और संगठनों ने राजनीतिक दल के रूप में खुद को पंजीकृत कराया। ये राजनीतिक दल 5 मार्च को लोकसभा चुनाव घोषित होने के बाद सामने आए। पिछले वर्ष चुनाव आयोग में पंजीकृत राजनीतिक दलों की कुल संख्या 1,627 हो गई थी।1पंजीकृत गैर मान्यता प्राप्त दलों को नहीं मिलेगा स्थायी चुनाव चिन्ह : पंजीकृत लेकिन गैर मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को उनके अपने चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ने की विशेषाधिकार नहीं होगा। उन्हें उपलब्ध फ्री चुनाव चिन्हों में से किसी को चुनना होगा। ऐसे उपलब्ध फ्री चुनाव चिन्हों की संख्या 84 है।1नई दिल्ली, प्रेट्र : राजनीतिक दलों की वादा खिलाफी उपजी निराशा के दौर से गुजर रहे भारत में चुनावी पार्टियों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। मार्च 2014 से इस वर्ष जुलाई के बीच चुनाव आयोग में करीब 239 संगठनों ने खुद को राजनीति दल के रूप में दर्ज कराया है। नए संगठनों के दर्ज होने के बाद देश में राजनीतिक दलों की संख्या 1866 हो गई है।1आयोग के मुताबिक, इस वर्ष 24 जुलाई तक उसके यहां 1866 राजनीतिक दल दर्ज हो गए थे। इनमें से 56 को पंजीकृत राष्ट्रीय या राज्य पार्टियां की मान्यता मिली। शेष ‘गैर मान्यता प्राप्त’ के रूप में पंजीकृत हुई हैं। आयोग द्वारा तैयार आंकड़े के अनुसार, वर्ष 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में 464 राजनीतिक दलों ने अपने प्रत्याशी उतारे थे।1आयोग का आंकड़ा संसद में इस्तेमाल करने के लिए कानून मंत्रलय को सौंपा गया था। मंत्रलय का विधायी विभाग चुनाव आयोग के लिए प्रशासनिक इकाई है।1चुनाव आयोग ने बताया है कि 10 मार्च 2014 तक देश में 1,593 राजनीतिक पार्टियां थीं। 11 मार्च से 21 मार्च के बीच 24 और दल पंजीकृत हुए। 26 मार्च तक 10 और संगठनों ने राजनीतिक दल के रूप में खुद को पंजीकृत कराया। ये राजनीतिक दल 5 मार्च को लोकसभा चुनाव घोषित होने के बाद सामने आए। पिछले वर्ष चुनाव आयोग में पंजीकृत राजनीतिक दलों की कुल संख्या 1,627 हो गई थी।1पंजीकृत गैर मान्यता प्राप्त दलों को नहीं मिलेगा स्थायी चुनाव चिन्ह : पंजीकृत लेकिन गैर मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को उनके अपने चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ने की विशेषाधिकार नहीं होगा। उन्हें उपलब्ध फ्री चुनाव चिन्हों में से किसी को चुनना होगा। ऐसे उपलब्ध फ्री चुनाव चिन्हों की संख्या 84 है।

Thursday, July 16, 2015

महीना बदलते ही एक साथ बदल जाएगी 50 हजार से ज्यादा लोगों की नागरिकता


 छिट महल के  दूसरी ओर का अपना सारा कुछ छोड़ कर यहां आने पर कई लोगों को संयश  है। कई लोग शरणार्थी शिविर में रहने की सोच कर ही चिंता में हैं। मालूम हो कि 31 जुलाई आधी रात के बाद 51 बांग्लादेशी छिटमहल भारत का हिस्सा बन जाएगा। इसके साथ ही भारतीय इलाके के 111 छिट महल बांग्लादेश के हो जाएंगे। इतना ही नहीं कुल मिलाकर 51584 लोगों की नागरिकता भी अगले महीने से बदल जाएगी।
एक साथ 50 हजार से ज्यादा लोगों की नागरिकता बदली जानी एक  विलक्षण घटना तो है ही, इसके साथ ही दूसरे देश को लेकर विभिन्न आशंकाएं भी हैं। देश-विदेश के मीडिया घटना पर नजर रख रहे हैं। सरकार की ओर से दस दिन पहले शिविर खोला गया था, जहां लोग अपनी नई नागरिकता के बारे में नाम-पता दर्ज करवा रहे हैं। हाल तक 51 बंगलादेशी इलाके में रहने वाले 14 हजार 14 हजार 215 लोगों ने नाम दाखिल कर दिए हैं। यह सारे भारतीय नागरिकों का 98 फीसद है।
सरकारी आंकड़ों का कहना है कि किसी भी भारतीय नागरिक ने बांग्लादेशी इलाके में रहने की इच्छा नहीं जताई है। सालों से रहने वाली भूमि का मोह  त्याग कर वे लोग भारतीय इलाके में रहने के लिए खुश हैं। लेकिन दो फीसद लोगों का क्या? क्या वे बांग्लादेश में रहना चाहते हैं? छिटमहल बिनिमय समन्वय कमेटी के नेताओं का कहना है कि ऐसी कोई बात नहीं है। कुछ लोग बाहर हैं तो कुछ बीमार हैं। समयसीमा पूरी होने से पहले सभी भारत में जाने के लिए सारी औपचारिकताएं पूरी कर लेंगे।
इसी तरह के हालात भारतीय इलाके में रहने वाले बांग्लादेशी नागरिकों की है। 37 हजार 369 (94 फीसद) लोगों ने अपने वतन जाने की सहमति प्रदान कर दी है। बताया जाता है कि यहां रहने वाले तकरीबन एक हजार हिंदू भारतीय इलाके में ही बांग्लादेशी नागरिक बनकर रहना चाहते हैं।
सूत्रों का कहना है कि 1127 लोगों ने पश्चिम बंगाल में रहने के लिए कहा था, अब 107 लोगों ने अपना फैसला बदल लिया है। कई और लोग भी अपने वतन जाने के बारे में सोच कर पत्र लिखने की योजना बना रहे हैं।
सरकारी अधिकारियों का कहना है कि तकरीबनएक हजार बांग्लादेशी नागरिक भारत में रहना चाहते हैं  क्योंकि यहां सुरक्षा और काम के ज्यादा अवसर मौजूद हैं। माना जा रहा है कि भारतीय नागरिक के तौर पर उन्हें ज्यादा सुविधा मिलेगी। इसमें पुनर्वास के लिए भारी रकम मिल सकती है।
सूत्रों का कहना है कि एक गुट चाहता है कि लोग बांग्लादेशचले जाएं तो दूसरा गुट चाहता है कि वे लोग यहीं रहें। इसका कारण कुछ लोग उनकी जमीन सस्ते में खरीदना चाहते हैं जबकि जमायत ए इस्लाम से जुड़े लोगों का मानना है कि बांग्लादेश की नागरिकता लेने से इंकार करने पर वहां की सरकार की किरकिरी होगी।
हालांकि कमेटी के नेता दीप्तिमान सेनगुप्ता का कहना है कि भारतीय छिटमहल में रहने वाले गरीब लोगों ने मतलबी लोगों की पहचान कर ली है। ज्यादातर लोगों ने पहले ही बांग्लादेश जाने की इच्छा जाहिर करके उनके सपनों को चकनाचूर कर दिया है। भात में आने की सोचने वाले भी अब वहां जाने की बात कर रहे हैं।

Sunday, July 5, 2015

सांसदों की तरह विधायकों के कब आएंगे अच्छे दिन




कोलकाता, 5 जुलाई । सांसद कोटे की रकम बढ़े बहुत अर्सा बीत चुका है। अब उनका वेतन और पेंशन वृद्धि की चर्चा चल रही है। माना जा रहा है कि इसमें भी भारी वृद्धि होने वाली है। इससे राज्य के  विधायकों में असंतोष बढ़ रहा है। चार साल पहले तृणमूल कांग्रेस सरकार के सत्ता में आने विधायकों के भत्ते में मामूली वृद्धि तो हुई लेकिन विधायक कोटे में वृद्धि नहीं हुई। कई विधायकों का कहना है कि विधायक इलाका विकास फंड में तो वृद्धि हुई ही नहीं, मूल वेतन में भी वृद्धि नहीं हुई है। तृणमूल विधायक हों, कांग्रेस या माकपा के सभी का मानना है कि महंगाई के दौर में इलाका विकास फंड में वृद्धि नहीं की गई तो काम करना मुश्किल है।
सूत्रों का कहना है कि महंगाई से हालत ऐसे हो गई हैं कि एंबुलेंस खरीदने के लिए रकम देते हैं तो रास्ते की मरम्मत का काम रुक जाता है। दोपहर के भोजन के लिए स्कूलों में रसोई घर बनाने के लिए रकम दी जाती है तब पेय जल परियोजना का काम बंद हो जाता है। एक मद में रकम खर्च करने पर दूसरे मद में रकम नहीं बचती है। एमएलए लैड में वृद्धि की आवश्यकता को लेकर सभी दलों के विधायक सहमत हैं। इस बारे में विधानसभा की स्टैंडिंग कमेटी ने दो साल पहले सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया था। राज्य के परियोजना और विकास मंत्री रछपाल सिंह भी बैठक में उपस्थित थे और उन्होंने भी माना कि वृद्धि आवश्यक है। लेकिन इस बारे में वित्त विभाग में मंजूरी नहीं दी, जिससे वृद्धि का प्रस्ताव अधर में लटक गया।
वरिष्ठ कांग्रेस विधायक मानस भूइयां का कहना है कि सांसदों के साथ विधायकों की तुलना मत करिए लेकिन देश के सभी राज्यों के विधायकों के मुकाबले पश्चिम बंगाल के विधायकों को सबसे कम रकम विधायक कोटे में मिलती है। मालूम हो कि राज्य के विधायक को एक साल में 60 लाख रुपए मिलते हैं जबकि झारखंड के विधायक को एक करोड़ 50 लाख, बिहार के विधायक को एक करोड़ 50 लाख, पंजाब के विधायक को दो करोड़ और कर्नाटक के विधायक को एमएलए लैड में एक करोड़ 50 लाख रुपए मिलते हैं। आखरी बार 2009-2010 में यह कोटा 50 लाख से बढ़ा कर 60 लाख किया गया था।
दूसरी ओर सांसद कोटे में कुछ साल पहले तक सालाना दो करोड़ रुपए मिलते थे, जिसे बढ़ाकर पांच करोड़ कर दिया गया है। अब सांसदों का मासिक वेतन दोगुना करने की सिफारिश की गई है। इससे राज्य के विधायकों और सांसदों में अंतर लगातार बढ़ता जा रहा है।
विधायक इलाका विकास फंड सबंधी स्टैडिंग कमेटी के अध्यक्ष खगेन मुर्मू का कहना है कि साल में 60 लाख रुपए कैसे खर्च करें कोई बताए तो? एक एंबुलेंस खरीदनेके लिए छह-सात लाख रुपए लगते हैं। किसी छोटे पुल की मरम्मत
करनी हो तो 10-15 लाख रुपए लग जाते हैं। दोपहर के भोजन के लिए स्कूल में रसोई घर बनवाना हो, उसके लिए पांच-छह लाख रुपए लग जाते हैं। एक सब-मर्सीबल पंप लगाने के लिए डेढ़ से दो लाख रुपए लगते हैं। अब क्या काम किया जाए और क्या नहीं, इसे लेकर ही चिंता रहती है।
माकपा विधायक अनीसुर रहमान का भी मानना है कि विधायक कोटे में वृद्धि की जानी चाहिए। तृणमूल कांग्रेस विधायक जटू लहिरी, निर्मल माझी समेत कई विधायकों ने भी वृद्धि का समर्थन किया है। मंत्री रछपाल सिंह मानते हैं कि वृद्धि जरुरी है, इसलिए कम से कम एक करोड़ रुपए कोटा करने की सिफारिश की गई थी। यह सिफारिश वित्त विभाग को भेज दी गई है।
इस तरह अब वृद्धि पर कोई फैसला वित्त मंत्री अमित मित्र पर निर्भर करता है। लेकिन पहले से आर्थिक संकट में गुजर रही सरकार इतनी वृद्धि कर भी सकेगी या नहीं, इसलिए माना जा रहा है कि प्रस्ताव ठंडे बस्ते में चला गया है। 

Sunday, June 21, 2015

गोद लेने वाले हजारों लेकिन घट रही है संख्या
कोलकाता, 21 जून
खगेंद्र राउत बीते 20 साल से कोलकाता के एक स्कूल में दरवान का काम कर रहा है। सालों पहले शादी हुई थी लेकिन अभी तक कोई संतान नहीं है। बच्चे के लिए बाबाओं से लेकर डाक्टरों तक खासी भागदौड़ करने के बाद किसी ने बच्चा गोद लेने के बारे में सुझाया। इस बारे में भी काफी प्रयास किए गए, सफलता नहीं मिली। एक बांग्ला टीवी चैनल में पत्रकारिता करने वाली एक युवती भी बीते 10 साल से बच्चे को तरस रही है,डाक्टरों से लेकर ओझाओं तक दौड़ने के बाद कई बच्चा गोद देने वाले एजेंसियों से भी संपर्क किया  लेकिन सफलता नहीं मिल सकी। महानगर और आसपास ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो बच्चों के लिए तरस रहे हैं।  दूसरी ओर सरकारी आंकड़ें बताते हैं कि देश में गोद लेने की दर में 50 फीसदी गिरावट आई है।
मालूम हो कि देश में अलग अलग कारणों से मां नहीं बन पाने वाली महिलाओं की तादाद लगातार बढ़ रही है। आंकड़ों के मुताबिक देश में  लगभग 15 फीसदी महिलाएं इस समस्या से जूझ रही हैं। महिलाओं में 1960 में प्रजनन क्षमता 6.1 थी, यह 2013 में घटकर 2.4 रह गई। जबकि 2012 में  बंगाल में यह आंकड़ा 1.7 पर पहुंच गया। पुरुलिया और पश्चिम मेदिनीपुर को छोड़कर जहां सभी जिलों में प्रजनन की दर कम हुई थी वहीं कोलकाता में यह निगेटिव 1.67 दर्ज की गई। एक ओर महिलाओं में बच्चा पैदा करने की दर घट रही है, दूसरी ओर बच्चों के लिए अस्पतालों से बच्चा चोरी, गरीबी के कारण बच्चा बेचने की खबरें भी छपती रहती हैं। इसके लिए कई वजहें जिम्मेदार मानी जाती हैं। कहीं देर से शादी हो रही है तो कहीं करियर के चक्कर में संतान प्रथामिकता सूची में नीचे पहुंच जाती है। बदलती जीवन शैली भी इसका एक कारण है। इलाज की समुचित और सस्ती सुविधाएं उपलब्ध नहीं होने और गोद लेने की प्रक्रिया लोगों की पहुंच से दूर होने के कारण कई लोग आजीवन संतान के लिए तरसते रह जाते हैं।
इधर, आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले पांच सालों में गोद लेने में 50 फीसद की गिरावट दर्ज की गई है। सेंट्रल एडाप्सन रिसोर्स एजेंसी (सीएआरए) के मुताबिक 2010 में 6321 बच्चों को गोद लिया गया था। जबकि 2013 में यह आंकड़ा घटकर 4354 पर आ गया था। अप्रैल-सितंबर 2014 में यह संख्या सिर्फ 1622 थी। आंकड़े बताते हैं कि पांच साल में देश में 21,736 बच्चे गोद लिए गए, जबकि विदेशी नागरिकों की ओर से गोद लिए जाने वाले बच्चों की संख्या 2156 रही। पश्चिम बंगाल में 2010 में 656 बच्चों को गोद लिया गया था। इसके बाद 2011 में 598, 2012 में 388, 2013 मेंं 399 और सितंबर 2014 में यह संख्या घटकर 86 रह गई।
कई लोगों का मानना है कि बच्चा गोद लेने की प्रक्रिया सरल हो जाए तो राज्य में 86 बच्चा गोद लेने का आंकड़ा एक-एक  जिले में ही कई गुना बढ़ जाएगा। इतना ही नहीं इससे बच्चा चोरी होने की घटनाओं में भी कमी आ सकती है। इसके साथ ही गरीबी में लोगों को बच्चा बेचने की नौबत नहीं आए, इस बारे में सरकार को सोचना चाहिए। एक व्यक्ति के मुताबिक कई जगह कोशिश करने के बच्चा गोद लेना संभव नहीं हुआ।
एक व्यक्ति ने बताया कि अगर आपके पास पैसे हों तो देश में किसी तरह की समस्या नहीं है। फिल्म स्टार से लेकर दूसरी अमीर हस्तियां जितने मर्जी बच्चे गोद लें, उन्हें कोई परेशानी नहीं होती। उनके लिए तो गर्भ धारण करने से लेकर टेस्ट ट्यूब बेबी जैसे कई तरीके हैं। जबकि आम व्यक्ति प्रतिदिन 100-200 रुपए की कमाई करता है,उसके लिए इस तरह से संतान हासिल करना संभव ही नहीं है।
सूत्रों का कहना है कि केंद्र सरकार की ओर से बच्चा गोद लेने की प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए एक ड्राफ्ट गाइडलाइन बनाई गई है। इसके मुताबिक पति-पत्नी भारतीय हों, उनकी उम्र 35 साल से ज्यादा हो, मानसिक,शारीरिक तौर पर स्वस्थ हों, बच्चे की देखभाल के लिए पर्याप्त संसाधन हों, उनके खिलाफ किसी तरह का आपराधिक मामला दर्ज नहीं हो। बताया जाता है कि इसका मकसद बच्चे को पारिवारिक माहौल प्रदान करना है। हालांकि यह मसौदा अंतिम नहीं है, इसमें संसोधन हो सकते हैं।
एक व्यक्ति ने इस बारे में कहा कि राज्य सरकारों को चाहिए कि बच्चा गोद देने वाली एजेंसियों और आवेदन करने वालों पर निगरानी की व्यवस्था की जाए। जिससे सालाना कितने बच्चे वहां आते-जाते हैं, इसका ब्योरा रखने के साथ ही संतानहीन परिवारों की व्यथा भी कम हो सके। फिलहाल तो यह कहा जा सकता है कि गोद लेने वालों के आंकड़ों में तो भारी गिरावट हुई है लेकिन कोई सर्वे कराया जाए तो पता चलेगा कि संतान की चाहत में परेशान दंपत्ति की संख्या में कितनी वृद्धि हुई है।

Thursday, November 27, 2014

चार साहिबजादे

चार साहिबजादों की बहादुरी को देख कर छलके हजारों आंखों में आंसू
रंजीत लुधियानवी
कोलकाता, 16 नवंबर। एक साथ दो हजार से ज्यादा आंखों में आंसू छलकते रहे और यह एक बार नहीं तकरीबन दो घंटे  के दौरान बार-बार हुआ, आंसू बहाने वाली आंखों में पुरुष, महिला, बच्चे, जवान सभी शामिल थे। यह मौका रविवार की सुबह डनलप के सोनाली सिनेमा हाल में देखा गया जहां सुबह नौ बजे वाले शो में 1200 सीटों वाले प्रेक्षागृह में छह महीने से लेकर सात साल के बच्चों को मिलाकर फिल्म देखने वाले दर्शकों की संख्या ज्यादा नहीं तो कम से कम 1500 तो जरुर रही होगी। गुरुद्वारा सिख संगत, डनलप ब्रिज और नौजवान सभा की ओर से निर्माता पम्मी बवेजा, निर्देशक हैरी बवेजा की सिखों के दसवें गुरू गुरू गोविंद सिंह जी के चार साहिबजादों (पुत्रों) पर आधुनिक थ्री डी तकनीक से बनाई गई 129 मिनट की फिल्म ‘चार साहिबजादे’ के मुफ्त प्रदर्शन का था।
पश्चिम बंगाल में पहली बार पंजाबी भाषा की कोई फिल्म इतने व्यापक स्तर पर प्रदर्शित की गई है। आइनाक्स, अवनि पीवीआर, सोनाली, मेनका समेत राज्य के विभिन्न मल्टीप्लेक्स और साधारण सिनेमा घरों में हिंदी, पंजाबी भाषा के थ्री डी और टू डी के लगभग 20 शो प्रतिदिन हो रहे हैं। मालूम हो कि तकरीबन 26 करोड़ की लागत से बनी फिल्म पहले ही देश-विदेश में सुपरहिट हो चुकी है। पहले चार दिनों में 7.90 करोड़ के कारोबार के साथ पहले नौ दिनों में फिल्म 20 करोड़ रुपए का कारोबार कर चुकी है। इतना ही नहीं विदेशों में भी फिल्म ने शानदार कारोबार करते हुए शाहरुख खान की हैप्पी न्यू ईयर को कड़ी टक्कर दी है। तीसरे हफ्ते बंगाल के ब्रांड अंबेसडर की फिल्म ने जहां 178 प्रिंटों पर 2.20 करोड़ रुपए की कमाई की वहीं सिख इतिहास पर अंग्रेजी, हिंदी और पंजाबी तीन भाषाओं में  बनी फिल्म ने पहले हफ्ते उसके मुकाबले 60 प्रिंटों पर 2.27 करोड़ रुपए की कमाई करके रिकार्ड बनाते हुए इंगलैंड, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में पहला स्थान हासिल किया।
‘चार साहिबजादे’ देखकर भाव विभोर हुए दर्शकों का मानना है कि निर्देशक ने बहुत ही साहस और चतुराई के साथ संवेदनशील विषय पर बहुत ही सफलता से फिल्म का निर्माण किया है। मालूम हो कि इससे पहले दारा सिंह की  ‘सवा लाख से एक लड़ाऊं’ (1976) से लेकर मंगल ढिल्लों की  ‘खालसा’ (1999) तक कई फिल्मकारों ने सिख धर्म पर फिल्म बनाने का साहस किया है लेकिन उन्हें भारी मुसीबतों और विरोध का सामना करना पड़ा। खालसा पंथ के  300 साला स्थापना दिवस के मौके पर आनंदपुर साहिब में अपनी फिल्म का प्रदर्शन करने पहुंचे ढिल्लो ने बताया था कि वे तो सिख होने के नाते धर्म का प्रचार करना चाहते हैं लेकिन उन्हें फिल्म प्रदर्शित करने की मंजूरी नहीं दी गई। इस तरह कई लोगों ने प्रयास किए लेकिन विफल हो गए।
फिल्म देखने वालों का कहना है कि हैरी बवेजा ने संवेदनशील विषय पर बेहद चतुराई से फिल्म का निर्माण किया है। खालसा पंथ की स्थापना करने वाले कवि, योद्धा, इतिहासकार , रणनीतिकार से लेकर कुशल श्रृद्धालु गुरू गोविंद सिंह (आपे गुरू-आपे चेला) के चार साहिबजादों के माध्यम से जहां सिखों के साहस, वीरता, चतुराई, नेतृत्व क्षमता  का ओम पुरी की दमदार आवाज में शानदार बखान कियागया है वहीं यह सीख भी दी गई है कि नेता वह होता है जो आगे बढ़कर दुश्मनों का मुकाबला करता है, जरुरत पड़ने पर अपने बेटों को भी शहीद होने के लिए भेजता है। 42 सिखों का 10 लाख मुगल सैनिकों से मुकाबला करने वाली जंग का बखूबी चित्रण करते हुए निर्देशक ने इस बात का भी ख्याल रखा है कि सिख गुरू को नहीं चित्रित किया जा सकता,  इसलिए चित्रों के माध्यम से दसवें गुरू की उपस्थित हर जगह प्रदर्शित की गई है।
कई लोगों के मुताबिक युवा पीढ़ी स्पाइडरमैन, सुपर मैन के काल्पनिक चरित्र देखती है उन्हें ‘चार साहिबजादे’ देखनी चाहिए, जिससे असली नायकों से परिचय हो सके और देश के सभी गैर सिखों के यह फिल्म इसलिए देखनी चाहिए कि सिखों के इतिहास के बारे में महज दो घंटों में जानकारी हासिल कर सकें। मालूम हो कि फिल्म के घटनास्थल से लेकर युद्ध में गुरू की ओर से चलाए गए शस्त्र काल्पनिक नहीं बल्कि असली शस्त्रों की तर्ज पर ही बनाए गए हैं।

Monday, September 15, 2014

मनमोहन सिंह के पक्ष में बोल पड़ी बेटी दमन: मेरे पिता तय करेंगे, आत्मकथा लिखें या नहीं


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Monday, 15 September 2014 16:20
नई दिल्ली। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पुत्री दमन सिंह का कहना है कि





नई दिल्ली। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पुत्री दमन सिंह का कहना है कि उनके पिता आत्मकथा लिखना चाहते हैं या नहीं, इस बारे में फैसला वही करेंगे। 

    दमन ने कल शाम अपनी किताब ‘‘स्ट्रिक्टली पर्सनल : मनमोहन एंड गुरशरण’’ के प्रकाशन से जुड़े एक समारोह में कहा ‘‘इस बारे में मेरे पिता को ही तय करना है। मुझे पूरा विश्वास है कि उनका लिखना इस बात पर निर्भर होगा कि उन्हें यह कितना रोमांचक लगता है।’’
    किताब लिखने के इस कठिन कार्य का आरंभ मनमोहन सिंह और उनकी पत्नी गुरशरण कौर के 1930 के दशक के शुरूआती दिनों की झलक से होता है और यह सफर वर्ष 2004 तक चलता है। मनमोहन और गुरशरण अमृतसर, पटियाला, होशियारपुर, चंडीगढ़, ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज, न्यूयॉर्क, जिनीवा, मुंबई तथा नई दिल्ली जैसी जगहों पर रहे और इन जगहों पर उनके प्रवास का जिक्र इस किताब में है।
    इससे पहले दो उपन्यास लिख चुकीं दमन का कहना है कि तीन लेखकों.... विक्रम सेठ, सिल्विया नासर और एम जे अकबर की बायोग्राफीज ने उनमें अपने अभिभावकों के बारे में ‘‘बेहद स्नेह और ईमानदारी’’ से लिखने का जज्बा पैदा हुआ।
    दमन ने कहा ‘‘विक्रम सेठ की ‘टू लाइव्स’ बेहद खूबसूरत रचना है जिसका मुझ पर गहरा असर हुआ। गणितज्ञ जॉन नैश पर लिखी सिल्विया नासर की किताब भी दिलचस्प है। तीसरी किताब नेहरू पर एम जे अकबर द्वारा लिखी बायोग्राफी है। इसका कोई जवाब नहीं है क्योंकि यह एक सार्वजनिक हस्ती के निजी जीवन के पन्ने बेहद करीने से पलटती है।’’
    किताब लेखन का विचार दमन सिंह के मन में करीब पांच

साल पहले से आकार ले रहा था। लेखन प्रक्रिया के बारे में उन्होंने बताया ‘‘मैं सवालों की सूची बनाती, अपने पिता या मां से समय लेती, उनके घर जाती, बातचीत रिकॉर्ड करती और फिर आ कर उसे लिखती।’’
    दमन ने कहा ‘‘यह किताब दो व्यक्तियों के बारे में है। इसमें उनकी सोच, उनकी राय, उनकी आस्थाओं, मूल्यों और आचरण का जिक्र है। इसमें बताया गया है कि कैसे विचार बनते हैं और समय के साथ उनमें कैसे बदलाव आता है।’’
    उन्होंने बताया कि किताब में ‘‘भारत का भी जिक्र है जो विभाजित तो हुआ लेकिन आखिरकार आजाद हो गया। इसमें बताया गया है कि देश ने आगे बढ़ने के लिए साहस के साथ कैसे संघर्ष किया और किस तरह के उतार चढ़ाव भरे दौर से गुजरा।’’
    दमन के अनुसार, अर्थव्यवस्था के बारे में लिखते समय उन्हें चुनौती का सामना करना पड़ा। ‘‘उनसे :मनमोहन सिंह से: आर्थिक मुद्दों पर बात करना मुश्किल था लेकिन उनके जीवन का बड़ा हिस्सा अर्थव्यवस्था को समर्पित रहा इसलिए मैंने न सिर्फ उनसे इस बारे में बात की बल्कि इसे लिखा भी।’’
    उन्होंने कहा ‘‘मैं उन मुद्दों को लेना चाहती थी जिन्हें मैं महत्वपूर्ण समझती थी.... उन्हें आम पाठक के लिए सरल भाषा में लिखना चाहती थी और मुझे उम्मीद है कि मैं ऐसा कर पाई।’’
    यह पूछे जाने पर कि क्या इस किताब पर फिल्म बनाई जाएगी, दमन सिंह ने कहा ‘‘मैं नहीं जानती। अगर फिल्म बनेगी तो मैं नहीं देखना चाहूंगी क्योंकि मैं अपनी किताब को ही पसंद करूंगी।’’
    किताब में पूर्व प्रधानमंत्री और उनके परिवार की तस्वीरें भी हैं।
(भाषा)