Friday, June 22, 2012

ममता ने घटिया दवा आपूर्ति करने वाली 50 संस्थाओं को सूची से निकाला


 सरकारी अस्पतालों में घटिया दवाओं की आपूर्ति करने वाली संस्थाओं के नाम सूची से काट दिए गए हैं। राज्य के स्वास्थ्य विभाग की ओर से इस बारे में शिकायते मिलने के बाद यह फैसला किया गया है। इस तरह कुल मिलाकर 50 संस्थाओं के नाम सूची से काटे गए हैं। पहले दवा आपूर्ति करने वाली 250 संस्थाएं थी इनमें राज्य की 110 संस्थाओं के नाम थे।
सूत्रों के मुताबिक स्वास्थ्य विभाग की नई सूची में कुल मिलाकर 182 संस्थाओं को शामिल किया गया है। इसमें राज्य की 60 संस्थाएं शामिल हैं। पुरानी 45 फीसद दवा आपूर्ति करने वाली संस्थाओं के नाम सूची से काट दिए गए हैं।स्वास्थ्य शिक्षा  अधिकारी सुशांत बनर्जी का कहना है कि हाल तक कुछ छोटी-छोटी संस्थाएं सस्ती दवाएं उपलब्ध करवाने का आश्वासन देकर सूची में अपना नाम दर्ज करवा लेती थी। कीमत कम रखने के लिए घटिया दवाइयों की आपूर्ति की जाती थी। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने निर्देश दिया है कि दवाइयों की गुणवत्ता के मामले में किसी तरह का समझौता नहीं किया जाएगा, इसके बाद घटिया दवा आपूर्ति करने वाली संस्थाओं के नाम सूची से काट दिए गए हैं।

हाईकोर्ट का ममता को झटका, सिंगूर विधेयक खारिज


पश्चिम बंगाल के बहुचर्चित सिंगूर जमीन मामले में कोलकाता हाईकोर्ट की दो सदस्यीय बेंच ने सिंगूर भूमि पुनर्वास और विकास विधेयक को असंवैधानिक करार दिया है।
टाटा ने इस मामले में कलकत्ता हाईकोर्ट के ही एक सदस्यीय बेंच के उस फैसले को चुनौती दी थी, जिसने पिछले साल इस विधेयक को सही ठहराया था।
ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री का पद संभालने के बाद पिछले साल जून में ये विधेयक पारित किया था। इस विधेयक के तहत सिंगूर में टाटा के साथ हुए समझौते को रद्द करते हुए ज़मीन किसानों को वापस दी जानी थी।
कलकत्ता हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ ममता सरकार सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकती है। पश्चिम बंगाल में पिछली वाममोर्चा सरकार के कार्यकाल में टाटा समूह के साथ समझौता हुआ था, जिसके तहत टाटा को सिंगूर में अपना संयंत्र लगाना था और उसके लिए उसे भूमि आवंटित की गई थी।
पश्चिम बंगाल सरकार ने एक हज़ार एकड़ जमीन का अधिग्रहण करके उसे टाटा मोर्टस को सौंप था जहाँ वो टाटा नैनो बनाने वाली थी। सिंगूर में टाटा मोटर्स का काम जनवरी 2007 में शुरु हुआ था। लेकिन भूमि आबंटन को लेकर टाटा समूह को लोगों का ज़बरदस्त विरोध झेलना पड़ा था।
योजना का विरोध करने वालों का कहना था कि सिंगूर में चावल की बहुत अच्छी खेती होती है और वहाँ के किसानों को इस परियोजना की वजह से विस्थापित होना पड़ा है। इसे लेकर हिंसक प्रदर्शन भी हुए थे।
आख़िरकर 2008 में टाटा समूह ने सिंगूर स्थित अपने संयंत्र को पश्चिम बंगाल से हटाने का फ़ैसला किया था। ममता बनर्जी ने 2011 में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में सिंगूर को एक बड़ा मुद्दा बनाया था।
कोर्ट ने यह फैसला टाटा मोटर्स के हक में दिया है। हालांकि इस मामले में पश्चिम बंगाल सरकार सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकती है और इसके लिए सरकार को कोर्ट ने दो महीने का वक्त भी दिया है।
मामले की सुनवाई कर रही न्यायमूर्ति पिनाकी चंद्र घोष और न्यायमूर्ति एम के चौधरी की खंडपीठ ने अपने फैसले में कहा कि सिंगूर एक्ट असंवैधानिक है।
टाटा मोटर्स ने कलकत्ता हाईकोर्ट की एकल पीठ के फैसले को चुनौती दी थी जिसने इस अधिनियम को बरकरार रखा था। इस अधिनियम के तहत पश्चिम बंगाल सरकार ने सिंगूर में कंपनी को दी जमीन का अधिकार का वापस ले लिया था।
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Sunday, June 10, 2012

बंगाल के इमाम सरकारी भत्ते के खिलाफ ?


 राज्य में पंचायत चुनाव से पहले मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मुस्लिम वोट बैंक पर कब्जा करने के लिए इमामों को भत्ता देने का एलान किया था। लेकिन राज्य के ज्यादातर इमामों ने भत्ता लेने के लिए आवेदन नहीं किया है। कहा जा रहा है कि उन्होंने सरकारी पेशकश को ठुकरा दिया है। वक्फ बोर्ड के 30 हजार  इमामों को भत्ता देने का एलान किया गया था। लेकिन महज 16 हजार इमामों ने भत्ता लेने के लिए आवेदन किया है। आवेदन करने वालों में भी कई भत्ता नहीं ले रहे हैं। जिला स्तर में पर्याप्त प्रचार किए जाने के बावजूद आवेदन जमा नहीं हो रहे हैं। उम्मीद के मुताबिक हालात उलट होने के कारण अल्पसंख्यक विभाग कार्यालय भी चिंतित बताया जाता है। मालूम हो कि राज्य में इमामों की संख्या 30 हजार से भी ज्यादा है।
सूत्रों से पता चला है कि वक्फ बोर्ड के अधिकारियों की ओर से भत्ता नहीं लेने के कुल मिलाकर चार कारण बताए जा रहे हैं। इसका पहला कारण यह है कि शरीयत कानून के मुताबिक इमाम कभी भी वेतन लेने वाले कर्मचारी नहीं हो सकते। किसी के नौकर नहीं हो सकते। मुस्लिम समाज के कई लोगों का मानना है कि इमाम सरकारी भत्ता हासिल करेंगे तो वह वेतन की तरह ही माना जाएगा। बाद में उन्हें सरकारी नौकरों में ही शामिल माना जाएगा। दूसरे भत्ता लेने के लिए वक्फ बोर्ड मस्जिद का पंजीकरण करवाने के लिए कहा गया है। जबकि राज्य में ऐसी बहुत मस्जिदें हैं जिनका बोर्ड से पंजीकरण नहीं है। कई लोगों का मानना है कि इस तरह बोर्ड से पंजीकरण करवाने के बाद गांव की मस्जिदें बोर्ड की संपति हो सकती हैं। इसलिए यहां के इमाम सरकारी घोषणा को नजरअंदाज कर रहे हैं। तीसरे राज्य सरकार की ओर से इमामों को 2500 रुपए मासिक भत्ता देने का एलान किया गया है। जबकि आम तौर पर इमाम इससे ज्यादा कमा रहे हैं। सरकारी अनुदान प्राप्त करने के बाद मस्जिदोें से मिलने वाली रकम में कमी हो सकती है, ऐसी आशंका के कारण कई लोग नहीं चाहते कि सरकारी अनुदान हासिल किया जाए। सरकार की आशा को निराशा में बदलने का एक कारण कई मुस्लिम धर्म गुरूओं की ओर से अनुदान लेने का विरोध किया गया है। इसलिए कुछ लोग सरकारी अनुदान से दूर रहना चाहते हैं।
आखिर इमाम भत्ता क्यों नहीं ले रहे हैं, इसका कारण क्या है? इस बारे में सरकारी टास्क फोर्स के एक सदस्य व एक  इमाम का कहना है कि सरकारी घोषणा का गलत मतलब निकाला जा रहा है। यह वेतन नहीं है, सरकार की ओर से नजराना दिया जा रहा है। इसे ज्यादातर लोग समझ नहीं रहे हैं। इसके खिलाफ प्रचार किया जा रहा है। सरकार की ओर से साफ किया गया है कि जो इमाम भत्ता लेना चाहेंगे उन्हें ही दिया जाएगा जबरन तो किसी को दिया नहीं जाएगा। हालांकि कई जगह बीडीओ को भी लौटा दिया गया है। लेकिन यह कहा जा सकता है कि सरकारी भत्ता लेने से कोई सरकार का गुलाम नहीं बन जाएगा।
राज्य अल्पसंख्यक विभाग के एक अधिकारी का कहना है कि यह कहना गलत है कि इमामों ने भत्ता ठुकरा दिया है। यह एक क्रमिक प्रक्रिया है, लोग इसमें शामिल हो रहे हैं और जल्द ही सभी इमाम सूची में शामिल हो जाएंगे। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 14 अप्रैल से 31 मई तक वक्फ बोर्ड में 15 हजार 125 आवेदन जमा हुए हैं। इनमें 14 हजार 825 आवेदन मंजूर हो गए हैं। इसके लिए सरकारी खजाने से पांच करोड़ 80 लाख 69 हजार 525 रुपए की राशि आबंटित की गई है। हालांकि कहा जा रहा है कि इसमें से भी कई इमामों ने भत्ता नहीं लिया है। प्राथमिक तौर पर जलपाईगुड़ी, बर्दवान और नदिया जिले से इमामों की सूची यहां आने में देरी हुई थी। सारे लोगों को मिलाकर 16 हजार लोगों की सूची बनी है।
वक्फ बोर्ड के सूत्रों का कहना है कि कोलकाता की 631 मस्जिदों में सिर्फ 366 इमामों ने भत्ते के लिए आवेदन किया है। यह आंकड़े देख कर विभाग के अधिकारी हैरान हैं। यहां पूछा जा रहा है कि महानगर कोलकाता में ही इमामों ने भत्ता क्यों ठुकरा दिया है? इसी तरह राज्य में कुल मिलाकर 30 हजार मस्जिदों से महज 16 हजार आवेदन का क्या मतलब निकाला जा सकता है?