Monday, October 29, 2012

घटिया दर्जे की फिल्मों ने मणि को निर्देशन के लिए प्रेरित किया


    रोजा, बांबे और दिलसे जैसी   फिल्में बनाने वाले प्रसिद्ध  फिल्मकार मणि रत्नम का कहना है कि फिल्मों में आना महज एक हादसा है। उन्होंने पत्रकारों से बातचीत के दौरान  कहा  कि करीब 35 साल पहले एक प्रमुख  बिजनेस स्कूल से एमबीए करने के बाद वह प्रबंधन सहालकार के रूप में अच्छा धन कमा  रहे थे और बेहतर जीवन गुजार रहे थे और यह संयोग ही था कि वे अचानक फिल्म उद्योग से जुड़ गए ।
 फिल्म जगत से जुड़ने के दिनों को याद करते हुए मणि बताते हैं कि वह महज एक हादसा था। मुझे फिल्मों से एक दर्शक से ज्यादा कुछ लगाव नहीं था। कभी भी यह नहीं सोचा था कि इसे कैरियर के तौर पर अपनाना है। यह भी नहीं सोचा था कि बैठ कर लिखुगां और वास्तव में फिल्म निर्देशन करूंगा। दूसरे दर्जे की तामिल फिल्में देख-देख कर व्यथित हुए मणि ने ठान लिया कि घटिया फिल्मों का दौर बदलना जरुरी है।
कमर्शियल तौर पर सफल और आलोचकों की प्रशंसा बटोरने वाले मणि आज भी मानते हैं कि तामिल में अच्छी फिल्मों का निर्माण किया जाता तो वे आज एक फिल्मकार नहीं बनते। उन दिनों की याद करते हुए वे कहते हैं कि बालाचंदर और महेंद्रन को छोड़ कर ज्यादातर लोगों से बनाई जाने वाली फिल्में अच्छी नहीं थी। तामिल सिनेमा जगत का रवैया स्थिरता वाला था। आम तौर पर साधारण स्तर की फिल्मों का निर्माण किया जा रहा था। फिल्मों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं रखने वालों को भी लगता था कि इससे बेहतर कुछ किया जा सकता है।
उन्होंने बताया कि जब उनके मित्र रवि शंकर ने 1979 में कन्नड़ भाषा में एक फिल्म बनाने की तैयारी शुरू की तो पहली बार उन्होंने फिल्मों के लिए कलम थामी और उस फिल्म की पटकथा लिखी। हालांकि तब तक लिखने से मात्र इतना संबंध था कि होटल से पिता को पत्र लिखता था रुपए मांगने के लिए, इसके अलावा कभी कुछ नहीं लिखा था। पटकथा लेखन से कैरियर बदलने का सोचा और फिल्म निर्देशन करने का फैसला किया। यह फैसला तब किया गया जब यह पता चल गया कि मैं पटकथा लिख कर निर्देशक को बेच सकता हूं। इस बारे में सारी जानकारी प्राप्त करने के बाद ही फिल्म जगत में जाने के बारे में सोचा गया।
उनकी पहली फिल्म कन्नड़ भाषा में पल्लवी अनुपल्लवी (1983) थी, इसके नायक अनिल कपूर थे। इसके बाद उन्होंने कला और वाणिज्य में तालमेल रखते हुए फिल्में बनाना शुरू कर दिया। उन्होंने कई दक्षिण भारतीय भाषाओं में फिल्म निर्माण किया। कमल हासन के अभिनय से सजी उनकी नायकन को टाईम पत्रिका ने सौ सर्वश्रेष्ठ फिल्मों की सूची में शामिल किया था। हालांकि फिरोज खान ने जब इसे हिंदी में दयावान के नाम से बनाया तो फिल्म फ्लाप हो गई।
मणि निर्देशित युवा और बांबे को समाज के कई वर्ग की ओर से खास तौर पर सराहा गया। हालांकि उनका मानना है कि फिल्में संदेश देने के लिए नहीं बनाता। फिल्में अपने अनुभव को दूसरे से बांटने या किसी विषय पर अपने विचार प्रकट करना है। एक समय पर एक ही फिल्म निर्देशित करने वाले मणि ने एक पुस्तक में अपने विचार प्रकट किये हैं। उनका मानना है कि यहां आने वाला व्यक्ति यहीं का होकर रह जाता है।

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